एक मोहल्ले में सार्वजनिक गणेश उत्सव में हर वर्ष, गत वर्ष से बड़ी गणेशजी की मूर्ति भेंट करने की प्रथा थी। मोहल्ले के एक शालीन व्यक्ति से सबने निवेदन किया कि मोहल्ले के हर सक्षम घर ने मूर्ति दान कर दी है, आप ही बचे हैं ।हम ये प्रथा बंद नहीं करना चाहते, इसलिये इस वर्ष की मूर्ति आपकी तरफ से हो। उक्त सज्जन ने वादा किया कि मूर्ति मैं भेंट करुँगा और साथ ही पूरे 11 दिनों के सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन भी मैं ही करुँगा व प्रति दिन के सारे कार्यक्रमों का सारा व्यय भी मैं ही वहन करुँगा। सबने आपस में कानाफूसी कर उन्हें अध्यक्ष ही बना दिया। सब की अपेक्षा थी कि इस वर्ष सबसे बड़ी मूर्ति आवेगी। खूब धूमा चौकड़ी मचेगी, डीजे पर देर रात तक डांस करेंगे। हर आदमी का 500 से 1000रुपये तक का चँदा भी बचेगा। पिछले साल 21फीट की “पी.ओ. पी.” की मूर्ति थी । इस साल प्रथा अनुसार 22 फीट की मूर्ति की अपेक्षा थी। मूर्ति इतनी बडी़ कहाँ बन रही है सब रहस्य ही था। स्थापना दिवस पर आयी मूर्ति बेहद सुंदर थी पर मूर्ति देख सब के होश ही उड़ गए। मूर्ति मात्र दो फीट की थी जो कि पी ओ पी की न होकर उसी नदी की मिट्टी की थी , जिस नदी में गणेश जी का विसर्जन किया जाता है। रंग भी हरबल बेस के थे । यही नहीं छोटे बच्चों और बुजुर्गों को कोई परेशानी न हो और ध्वनि प्रदूषण न हो इसलिए डीजे भी नहीं लगे उसकी जगह प्रति दिन कर्ण प्रिय लोक गीतों व पारम्परिक लोक नृत्यों एवं भजन मंडलियों का ही आयोजन रखा गया था।
हेमंत उपाध्याय
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