सच्चाई तो यही है कि रावण की राम के हाथों पराजय उसके अहंकार के कारण ही हुयी थी | तुलसीदासजी भी रावण के अहंकार को उसकी पराजय और म्रत्यु का मुख्य कारण बताते है | बल और बुद्धीमता के अहंकार ने रावण को ना अपने अंत तक पहुंचाया बल्कि उसके अहंकार ने आगामी पीढ़ियों के लिये रावण का चरित्र बुराई, परस्त्रीगमन और घमंड का प्रतिमान बना दिया | अहंकार ने ही रावण को जनमानस की नजरों में पराजित योद्धा और बुराईयों का प्रतीक बना दिया है |
रावण-कुंभकर्ण-मेघनाद के पुतलों को जलाते वक्त कुछ ही क्षणों के लिये हमारे मन में भगवान श्रीराम के आदर्शों को अपने जीवन में अपना कर सभी प्रकार दुष्कर्मों एवं तामसिक प्रव्रत्तियों यानी काम,क्रोध,लोभ,मद,मोह,मत्सर,अहंकार,आलस्य,हिंसा एवं चोरी को त्यागने का विचार आता है,किन्तु हमारा यह विचार श्मशानी वैराग्य की तरह ही क्षणिक होता है क्योंकि कुछ ही समय बाद हम सभी अपने सांसारिकता के प्रपंचों में तल्लीन हो कर तामसिक प्रवृत्तियों के चंगुल में फंस जाते हैं | काश अगर हम हम इस सात्विक सोच को हमेशा के लिए अमली जामा पहना पाते तो हमारा जीवन एक अलग ही किस्म का बन जाता और हमारे समाज में झूठ, फरेब ,धोखाधडी, लूट चोट ,चोरी-चकारी, हिंसा, मारकूट, अपहरण-बलात्कार की भयावह घटनायें घटित ही नहीं होती |