डर के बावजूद

हमें खालिस्तान आंदोलन के दिन याद आ रहे हैं जब किसी सिख की कोई बात उसी तरह नज़र से देखी जाती थी जिस नज़र से आजकल मुस्लिम नामधारी किसी व्यक्ति की बातों को देखा जाता है।

अभी सज्जन कुमार को सिख हत्याओं के लिए उम्रक़ैद मिली है। जिन्हें याद हो वे बताएँ, कैसे दिन थे। सिख कितने भयभीत रहते थे। हमने अपनी कॉलोनी के तीन सिख परिवारों को भरोसा दिया कि हम सबके रहते वे सुरक्षित हैं। सबसे घने तनाव की रात हमारी कॉलोनी के ही कई लोग तीनों सिख परिवारों को ‘सबक़ सिखाने’ की ललकार मचा रहे थे।

मैं उन दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय के पत्राचार पाठ्यक्रम में था। मेरे पिता बद्रीनाथ तिवारी सोवियत सूचना विभाग में थे। हम दोनों के साथ कुछ लोग और थे। सबसे पहले एक अस्पताल कर्मचारी यूनियन के नेता बालकिशन बाल्मीकि थे, दूसरे भैरवदत्त ध्यानी और तीसरे एच. एन. सिन्हा। बद्रीनाथ जी ने कहा, हमारे जीते जी कोई इन तीनों (सिखों) का बाल बाँका न कर पाएगा।

इसपर एक सज्जन ने कहा कि ‘तो पहले आपको ही देख लेते हैं!’ ये सज्जन नानकपुरा में संघ की शाखा से जुड़े थे। इसीलिए मैं कहता रहा हूँ कि शुरूआत की थी कॉंग्रेसियों ने लेकिन सिख विरोधी हिंसा को आगे बढ़ाने में संघ ने पूरी सक्रियता और तत्परता दिखायी थी।

मुझे याद है, पत्राचार की कक्षाएँ चल रही थीं। ३१ अक्तूबर की दोपहर का समय था। मैं एम. ए. की एक कक्षा से निकला था और डॉ. सत्यपाल चुप कक्षा में जा रहे थे। डॉ. चुघ किरोड़ीमल कॉलेज में थे, एम. ए. में मेरे शिक्षक रह चुके थे, भाजपा के प्रथम पार्षद थे और संघ के अतिमहत्वपूर्ण व्यक्ति थे। राजनीतिशास्त्र के अध्यापक डॉ. देवेंद्र कक्कड़ उसी समय कॉलेज पहुँचे थे। मुझे देखते ही काफी घबराए हुए स्वर में बोले, टाइम्स ऑफ़ इंडिया में स्पॉट न्यूज़ लगी कि ‘इंदिरा गाँधी शॉट ऐट!’ मैंने परेशान होकर पूछा, कैसे, क्या हुआ, किसने मारा, घायल तो नहीं हैं, ख़तरा से बाहर तो हैं?

देवेंद्र कुछ बताने की स्थिति में नहीं थे। पर घबराए हुए थे। डॉ. चुघ ने कहा, यह सब चुनाव के पहले सहानुभूति पाने का नाटक है! वे मेरे शिक्षक रह चुके थे पर मैंने प्रतिवाद किया। इतना बड़ा ‘नाटक’ कोई नहीं कर सकता! बहरहाल, हम लोग बीबीसी सुनने की कोशिश करने लगे। वहीं तब कुछ कर्मचारियों के निवास थे। किसी के घर में रेडियो चलवाकर स्थिति का पता करने की कोशिश की। एक बजते-बजते ख़तरे का आभास हो गया। उस दिन देवीसिंह नामके एक युवा मित्र मेरे साथ थे। शाम तक जो अनुभव किया, हम दोनों ने दंगाइयों से घिर जाने पर भी बहुत सिखों को जिस तरह बचाया, वह खुद एक विषय है जिसपर फिर लिखा जाएगा। उसीके साथ हिंसा-पीड़ित इलाक़ों में शिक्षक संघ की ओर से स्थापित शिविर के अनुभवों पर भी लिखना एक स्वतंत्र विषय है।

यहाँ मैं यह बता रहा हूँ कि कोई सिख अगर सब कुछ शांत हो जाने के बाद ग़लती से कह बैठता कि उसे कैसा डर लगता है, तो बहुत से लोग उग्र होकर पीछे पड़ जाते थे। मैं कई बार सोचता या दूसरों से जिरह करता कि मेरे पड़ोसी मि. खुराना या मि. गिल से पूछिए डर क्या होता है, जो उस रात सहमे हुए घर में दुबके थे पूरे परिवार के साथ! हम जब उनके घर गये, आश्वस्त करने, तो उन्होंने बहुत देर बाद, मेरे पिताजी की और मेरी मौजूदगी पक्की कर लेने के बाद दरवाज़ा खोला था।

आज किसी मुस्लिम नामधारी हिंदुस्तानी को अगर वैसा ही डर लगता है तो उससे भी अधिक उग्र और हिंसक प्रतिक्रिया होती है। आज अगर मैं उनकी पीड़ा का समर्थन करता हूँ तो मुझे भी डराया जाता है। मैं जयचंद हो जाता हूँ, राष्ट्रद्रोही तो होता ही हूँ! मैं भी पाकिस्तान भेजा जाने लगता हूँ, गोया ये हिंदुत्व गिरोह वाले पाकिस्तान के ट्रैवेल एजेंट हैं!!

पर नसीरुद्दीन शाह के जिस प्रसंग से यह नया कोहराम उठा है, उसमें हिंदुत्व का गिरोह पूरी तरह बदनाम होकर रहेगा। मोदी-प्रशंसक तवलीन सिंह ने तो इस मामले में नसीर को उचित बताते हुए योगी को ही “देशद्रोही ‘राष्ट्रवादी’ “ की संज्ञा दी है। खुद नसीर एक सच्चे भारतीय कलाकार हैं जिनकी देशभक्ति परशक करने वाले मुँह की खाएँगे। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने इस मामले का लाभ उठाने की कोशिश की तो नसीर ने नसीहत दे दी कि अपने मामले देखो, यह हमारे देश का मामला है, हम खुद सुलझा लेंगे!

हम सब मिलकर खड़े हों तो धर्म से देशभक्ति को जोड़ने का यह इतिहास-विरोधी कुचक्र सफल न होने पाएगा। सिखों को डराकर देशद्रोही बनाने का दौर तीस-पैंतीस साल पहले था, मुसलमानों को डराकर देशद्रोही बनाने का दौर आजकल है। लेकिन सिख देशद्रोही थे, न मुसलमान हैं। देशद्रोही हैं वे राजनीतिज्ञ जो धर्म के नामपर लोगों को बाँटते और लड़ाते हैं ताकि देश अंदर से विभाजित हो और अमरीका जैसा कोई लार टपकाने वाला ताक़तवर देश भारत पर हावी हो जाय।
—अजय तिवारी

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