ये मोदी उन्माद बहुत दिनों तक नहीं रहने वाला

27_06_2013-modimumयह दावा कोई नहीं कर सकता कि हमारे देश में चुनाव पूर्व सर्वेक्षण पूरी तरह विश्वसनीय होते हैं। दरअसल यह एक व्यावसायिक कर्म है जो किसी चैनल या अखबार को दर्शक या पाठक मुहैया कराता है। सर्वेक्षक अपनी अध्ययन पद्धति को ठीक से घोषित नहीं करते। किसी के पास समय नहीं होता कि उनकी टेब्युलेशन शीट्स को जाँचा-परखा जाए। विधानसभा चुनाव पांच राज्यों में होने हैं लेकिन मीडिया सर्वेक्षण चार राज्यों पर ही केंद्रित कर रखा है।   अभी में जो सर्वेक्षण सामने आ रहे हैं वे कांग्रेस के ह्रास और भारतीय जनता पार्टी के उदय की एक आभासी तस्वीर पेश कर रहे हैं। सर्वेक्षणों ने राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीगढ़ के बारे में कमोबेश साफ लेकिन दिल्ली के बारे में भ्रामक तस्वीर दी है इसकी एक वजह आम आदमी पार्टी यानी ‘आप’ की उपस्थिति है। अभी आये तीन सर्वेक्षण तीन तरह के नतीजे दे रहे हैं जिनसे इनकी विश्वसनीयता को लेकर संदेह पैदा होता है। सर्वेक्षणों के बुनियादी अनुमानों में इतना भारी अंतर है कि आम आदमी यह सोचता है किस पर भरोसा करें। जरा कल्पना करें कि मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के सुदूर और विविध जन-संस्कृतियों वाले इलाकों में सर्वेक्षण किस तरह किया गया होगा। तीन समाचार चैनलों और कुछ अख़बारों ने इन सर्वक्षणों को प्रसारित-प्रकाशित किया है। इनमें टाइम्स नाउ-सीवोटर, हैडलाइंस टुडे-सीवोटर और सीएनएन-आईबीएन-एचटी-सीफोर के सर्वे आये हैं। योगेन्द्र यादव के नेतृत्व में ‘आप’ के अपने सर्वे ने इसे और पेचीदा बना दिया है। यहां सवाल उन मीडिया कंपनियों का है जिनके मालिक प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से विभिन्न पार्टियों से जुड़े हैं। यदि सभी एजेंसियां, टी.वी. चैनल और राजनीतिक पार्टियां अपने-अपने सर्वे का पूरा का पूरा डाटा अपनी वेबसाइट पर डाल दें तो जनता तय कर सकेगी कि कौन सा सर्वे विश्वास करने लायक़ है, पारदर्शी है। अगले संसदीय आम चुनाव होने में अभी छह महीने का समय बाकी है। लेकिन मुख्य सवाल यह है कि मई-2014 में होने वाले आम चुनावों में नरेन्द्र मोदी प्रधानमन्त्री बनेंगे या नहीं? जहाँ भारत की जनता के एक वर्ग को नरेन्द्र मोदी के प्रधानमन्त्री बनने की सम्भावना के बारे में सुनकर डर लग रहा है, वहीं दूसरा वर्ग इस सम्भावना को देखकर खुशी जाहिर कर रहा है। लेकिन भारत की राजनीति की आज दशा यह है कि सारी सम्भावनाएँ एक ही व्यक्ति के इर्द-गिर्द घूम रही हैं। सवाल यह उठता है कि आखिर यह नरेन्द्र मोदी क्या सचमुच भारत को बचाने आ रहे हैं या उनके आने से भारत की नैया डूब ही जाएगी? नरेंद्र मोदी की रैलियों में जुटने वाली भीड़ और मीडिया द्वारा कुछ प्रायोजित चुनावपूर्व सर्वेक्षण में उन्हें मिल रहे समर्थन को देखकर खुश बीजेपी ने 2014 के लोकसभा चुनाव के लिए समीकरण भी बैठाना शुरू कर दिया है। यह ध्यान देने वाली बात है कि सवर्ण मध्यवर्गियों खास तौर से उत्त्तर भारतीयों और पश्चिमी प्रदेशों के नागरिकों को मोदी से अत्यधिक अपेक्षाएं बन गई हैं। मोदी का जादू उनके सर चढ़कर बोल रहा है। मेरे एक मित्र ने कुछ समय पूर्व ‘टाइम’ मैगज़ीन के उस अंक का मुखपृष्ठ मुझे मेल किया है जिस पर मोदी का फोटो छपा है और जिस पर यह कैप्शन चस्पा है ‘मोदी मीन्स बिजनेस’ वे इस बात से अत्यंत गदगद थे। आगे उन्होंने स्वयं लिख दिया ‘भारत के अगले प्रधान मंत्री मोदी’। मान लीजिये मोदी प्रधान मंत्री बन जाते हैं तो वे किस का भला करेंगे? जाहिर है व्यवसायियों और पूंजीपतियों का, जैसा कि टाइम मैगजीन को लग रहा है। ब्रोकरेज हाउस गोल्डमैन सैक्स ने नरेंद्र मोदी की तारीफ की है। क्या गोल्डमैन सैक्स जैसे बैंक की राजनीति और चुनाव पर यह टिप्पणी ठीक है? इसके मायने क्या हैं? अब तक जो अमेरिका मोदी को अमेरिकी वीजा नहीं दे रहा था वह अब कह रहा है मोदी के साथ काम करके खुशी होगी, वीजा कोई मुद्दा नहीं। दरअसल यह एक गंभीर स्थिति है। मोदी आम नागरिक के लिए कुछ कर सकेंगे यह संदिग्ध है। मोदी के मुख्यमंत्रित्व में आम नागरिकों का जीवन स्तर और उसकी गुणवत्ता गुजरात में कितनी बढ़ी है यह शोध का विषय है। यह तथ्य सर्वविदित है कि गुजरात कभी भी भिखमंगा प्रदेश नहीं रहा वहां व्यवसाय की सदैव ही प्राथमिकता बनी रही अतः वहां की वित्तीय स्थिति हमेशा सुदृढ़ रही। लेकिन लोगों के मन में मीडिया और मोदी समर्थकों ने यह कूट कूट कर भर दिया है कि वहां मोदी काल में बहुत विकास हुआ। गुजरात में उनके विकास का यही मॉडल है। राज्य में शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में मोदी ने क्या किया है? एक भी विश्वविद्यालय खुला? अस्पताल बेहतर सेवाएं दे सके? गरीबों की आय बढ़ी? नहीं! लेकिन लोगों में उन्माद है। इसका एक बड़ा कारण कांग्रेस की भ्रष्ट और घटिया राजनीति है जिसने देश को तहस नहस कर रखा है। ऐसा उन्माद भारतीय लोकतंत्र में कोई अनहोनी घटना भी नहीं है। मुझे याद है कि सातवें दशक में जब स्वर्गीय इंदिरा गांधी ने बैंकों के राष्ट्रीयकरण की शुरुआत की थी, गरीबी हटाओ का नारा दिया था और भी कई प्रगतिशील कदम उठाये थे तब इंदिरा जी का जादू मध्यवर्गीय लोगों के सर चढ़कर बोलने लगा था। उन्हीं इंदिरा गाँधी को सातवें दशक के उत्तरार्ध तक पहुंचते पहुंचते घोर अलोकप्रियता का शिकार होना पड़ा और आपातकाल लगाना पड़ा। उसके बाद उन्हें बुरी तरह पराजय का मुंह देखना पड़ा था। वहीं इसी समय सन 1977 में जयप्रकाश नारायण के छात्र आन्दोलन के उफान पर आने के बाद जयप्रकाश नारायण की लोकप्रियता शिखर चूमने लगी थी। बाद को उस आन्दोलन का क्या हश्र हुआ यह सभी को पता है। जिनका नारा था ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ लेकिन हुआ यह कि कालांतर में जनता की बजाय खुदगर्ज समाजवादी सिंहासनारूढ़ हो गए। आपातकाल के बाद जनता पार्टी की हुकूमत और स्व. विश्वनाथ प्रताप सिंह के अभ्युदय से भी जनता ने भारी उम्मीदें बाँध ली थीं। बोफोर्स तो एक तरफ रह गया मगर वही विश्वनाथ प्रताप सिंह जब मंडल के दलदल में फंसे तो ऐसे डूबे कि जीवन पर्यंत उबर नहीं सके। जिस व्यक्ति के लिए जनता ने नारा दिया था ‘राजा नहीं फकीर है भारत की तकदीर है’ वही वीपी सिंह आलोकप्रियता के उस निम्नतम मुकाम तक पहुँच गए जिस मुकाम तक भारतीय राजनीति का कोई भी व्यक्ति नहीं पहुंचा था। उनसे भी जनता को बहुत उम्मीदें थीं। अब देखिये भाजपा के शासन काल में अडवाणी, अटल बिहारी के कद के बराबर पहुँच चुके थे आज उनकी स्थिति यह है कि उन्हें मोदी को न चाहते हुए भी आशीर्वाद देना पड़ा है। एक समय प्रादेशिक स्तर पर लालू यादव से बिहार की जनता को बहुत उम्मीदें जगीं थी पर बाद को लालू उनका चारा तक खा गए और बिहार को एक अपराध प्रधान प्रदेश में तब्दील कर डाला। लालू तब कहते थे कि जब तक दुनिया में आलू है तब तक बिहार में लालू है। आज उन लालू की स्थिती बहुत दयनीय है, बेचारे जेल की हवा खा रहे हैं। दिग्विजय सिंह जब मध्यप्रदेश के मुख्य मंत्री बने तो लगा कुछ करेंगे पर उन्होंने मध्य प्रदेश का जो बंटाधार किया उस से सभी परिचित है। अब हालत यह है कि एक मानसिक रोगी करार दिए जाते हैं उनकी किसी बात को कोई गंभीरता से नहीं लेता। यहां तक कि उनके गृहराज्य में ज्योतिरादित्य की सभा में उन्हें बोलने तक को नहीं बुलाया जाता। आन्ध्र प्रदेश के हैदराबाद में चन्द्रबाबू नायडू हाईटेक सिटी बनाने के बाद बेहद लोकप्रियता अर्जित करते हैं लेकिन ग्रामीण क्षेत्र के लोग उन्हें नकार देते हैं और वे हाशिये पर आ जाते हैं। बिहार में ही लालू के प्रस्थान के बाद जब नितीश आते हैं तो लोगों की अथाह उम्मीदें पुनः बलवती हो जाती हैं। धीरे-धीरे उनका भी जादू टूटने लगता है। अब बिहार के जनजीवन में नितीश की जगह किस स्तर पर है? कुछ समय पहले अन्ना हजारे जब रामलीला मैदान में अनशन पर बैठे थे तब रामलीला मैदान में इस कदर अथाह भीड़ उमड़ पड़ी थी कि वहां प्रवेश करना मुश्किल था। ऊपर से मीडिया का धुआंधार प्रचार। अन्ना हजारे से जनता की उम्मीदें इस कदर जग उठी जैसे उनके पास कोई जादुई जिन्न हो जिसे रगड़ते ही भारत से भ्रष्टाचार रफूचक्कर हो जायेगा। यह कुछ सहज उदहारण हैं। अब मोदी जी से जनता को भयंकर उम्मीदें बंध रहीं है कि वह सबकुछ ठीक ही कर डालेंगे। तो ये सिर्फ उम्मीदें ही हैं इनके भरोसे जनता कुछ भी कर सकती है। वह हमेशा चाहती है कि कोई सकारात्मक बदलाव हो लेकिन ऐसा न होने पर यह समझ भी जाती है कि नेता अपनी स्वार्थ सिद्धि के अलावा जनता की भलाई के लिए क्या कुछ कर सकते हैं मगर मजबूरी है। वह भी क्या करे। http://bhadas4media.com
-शैलेन्द्र चौहान

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