उड़ता राजस्थान

gopal singh jodha
gopal singh jodha
निर्देशक अभिषेक चौबे की फिल्म उड़ता पंजाब वाली कंट्रोवर्सी आप सब देख रहे हैं. वही, करीना, शाहिद, आलिया और दिलजीत वाली फिल्म. इसकी कहानी पंजाब में नशे की जकड़न के बारे में है. सही है, इस राज्य के युवाओं में नशे की लत और बर्बादी का मुद्दा पंजाबी गानों और राजनेताओं के भाषणों में आता रहा है. अब पहली ऐसी फिल्म भी आ रही है. लेकिन पंजाब के अलावा एक और राज्य है जो नशे का साथी रहा है. राजस्थान.

यहां की रस्मों में अफीम घुली है. खासकर ग्रामीण परिवेश में. कुछ खास समुदायों में ज्यादा, बाकियों में कम. पहले इसका रंग ज्यादा नेगेटिव नहीं था. शादी में सेलिब्रेट करने के लिए, मृत्यु में शोक भंग करवाने के लिए इसे प्रेम से लिया और दिया जाता था. लेकिन समय बदला और कमजोर तासीर के होते जाते शरीरों में ये विशुद्ध रूप से नशे के रूप में बच गई.

अब गांवों में बड़ी संख्या में लोगों की नस-नस में अफीम है. उठते ही अफीम, दोपहर अफीम, सोते अफीम. उनके लिए रोटी-कपड़ा-मकान बाद है बस पहले ये मिल जाए. सरकार ने अफीम को गैर-कानूनी घोषित कर रखा है. जानें कि ये राजस्थान की नसों में कैसे घुली, लोग क्यों खाते हैं, कैसे खाते
पहले तो अफीम क्या होती है ये जान लें. अफीम का पौधा होता है. उसमें डोडा लगता है. इन डोडों में चीरा लगाते हैं. जिसमें से दूध निकलता है. उसे सुखाकर अफीम बनाई जाती है. अफीम में 12 फीसदी मॉर्फीन होता है. हैरोइन नाम का जो ड्रग होता है वो इसी मॉर्फीन से बनता है. डोडों से डोडा-पोस्त बनता है. असल में यह एक औषधीय पौधा है. इसको हर जगह नहीं उगाया जा सकता. भारत सरकार जहां अनुमति देगी वहीं पर उगा सकते हैं.

‘धंधाणियां बंधाणियां जसांतिग आळी कोटड़ी में रेयाण रो हिलो है’. सुबह के 6 बज रहे है. और यह आवाज पास की कोटड़ी से आई थी. कोटड़ी घर के बाहर मुखिया के बने उस कमरे व जगह को कहते हैं जहां गांव के लोग इकट्ठे होते हैं. इस पुकार का मतलब था कि आज रेयाण (गेट-टुगेदर) है कोटड़ी में. इसलिए सभी को बुलावा है, आ जाओ. किसी ऊंची जगह पर चढ़कर एक आदमी जोर से चिल्लाकर बोलता हैं और फिर एक-दूसरे से सबको पता लग जाता है. और लोग इकट्ठे हो जाते हैं.

फिर वहां शुरू होती है रेयाण. बीच में पीठ टिकाए बुजुर्ग लोग बैठते हैं. दरवाजे के पास मांगणियार बैठे होते हैं. अपने गानों का रस घोलते हुए. एक आदमी अफीम की मनुहार करता है. अफीम खाने के दो तरीके हैं. एक सूखा और दूसरा गलाकर. एक और तरीका है पर वो बहुत कम देखने को मिलता है. लोग सीधा अफीम का दूध ही खाते हैं. बहुत खतरनाक होता है. और महंगा भी. उस दूध से दस गुना अफीम बन जाती है.

गलाकर जो अफीम खाते है वो ज्यादा प्रचलन में है. एक आदमी हथेली में भरकर सबको पिलाता है. इसमें जो मान मनुहार होती है वो बड़ी मज़ेदार होती है. हर आदमी को तीन हथेली भरकर अफीम पिलाया जाता है. उसे ‘तिबार’ कहते हैं. और इस दौरान तीखी नोक-झोंक भी होती है. किसी को आदत हो जाती है कि उसको बिना नोक-झोंक के अफीम का नशा ही नहीं चढ़ता. अफीम से मुंह कड़वा हो जाता है. कड़वाहट दूर करने के लिए रेयाण में खारक और बताशों के थाल भरकर रखे जाते हैं.

यह नशा आज से नहीं शुरू हुआ. सदियों से चला आ रहा है. कहीं पढ़ा था कि विश्नोई समाज के गुरू जाम्भोजी के प्रभाव में आकर कुछ राजपूतों ने दारू और मांस छोड़ दिया था. फिर उसकी जगह आ गया अफीम. धीरे-धीरे ऐसा घुल गया कि आज शादी, मौत, जन्म, झगड़ा सब अफीम में जुड़ा है. और यह नशा सिर्फ पुरूष ही करते हैं.

आपसी झगड़ों में समझाइश करनी हो तो अफीम पिलाते हैं. और एक बार अफीम पी ली तो झगड़ा खतम. सगाई करने जाते हैं तब ये नहीं कहते कि सगाई करने जा रहे हैं. कहते हैं कि अमल पीने जा रहे हैं. अमल पी लिया मतलब रिश्ता पक्का. यहां के लोग अफीम को ‘अमल’ या ‘अलम’ भी कहते हैं. कुछ लोग ‘काळियो’ भी कहते है. देवताओं को भी अफीम चढ़ाते हैं. मूर्ति में जहां मुंह बना होता है वहां पर चिपका देते हैं.

एक बार आदमी को लत लग गई न! फिर तो रोज सुबह उठते ही अफीम न मिले तब तक उसको लगता ही नहीं है कि वो है. शरीर काम ही नहीं करता. लत जितनी आसानी से लग जाती है, इसे छोड़ना उतना ही मुश्किल है. मेरे एक भाई हैं. उनको लत लगी थी. छुड़वाया तब हालत खराब हो गई. रात को चारपाई से तकलीफ में ऐसे उछलते जैसे स्प्रिंग लगी हो. मैं तो डर जाता था. वो तो कितने डरे रहे होंगे.

हमारे यहां कारीगर होते हैं. वो जो घर बनाते है. उनको अफीम न खिलाओ तब तक एक पत्थर को हाथ नहीं लगाते. अफीम यहां रीति-रिवाज, मान-सम्मान है. सुबह-सुबह अफीमची पालथी मार के चबूतरे पर बैठते हैं. पहले तो मुरझाए से रहते हैं, ज्यों ही अफीम नसों में जाए. फिर क्या सरपंच क्या मोदी, क्या जेएनयू क्या गांव वाली गली. सबका चिट्ठा खुल जाता है. नए-पुराने सारे किस्से ऐसे उगलते हैं जैसे डेक का प्ले बटन दब गया हो

नशा छुड़वाने के लिए सरकार और बहुत सारे लोगों द्वारा कोशिशें की जाती है. नशामुक्ति केंद्र खोले जाते है. 1984 में सामाजिक कार्यकर्ता और सांसद रहे नारायण सिंह माणकलाव ने अफीम मुक्ति के लिए अभियान चलाया था. इस पर इंडिया टुडे ने फोटो स्टोरी भी की थी. उस 1984 को आज 34 साल हो गए लेकिन इस नशे के खिलाफ संघर्ष जारी है.

राजस्थान सरकार ने अप्रैल 2016 से डोडा-पोस्त की बिक्री बंद कर दी है. पहले सरकार द्वारा अलॉट किए गए ठेकों पर बेचने की अनुमति थी. अब मारवाड़ और राजस्थान के वे पंछी रोज उड़ने का अनुभव नहीं ले पा रहे. उनकी फड़फड़ाहट जारी है. कई छुप-छुपकर उड़ रहे हैं.

1 thought on “उड़ता राजस्थान”

  1. यह समाचार पढ़कर काफी दुःख महसूस कर रहा हूँ । मैं अपने राजस्थान को हँसते मुस्कुराते देखना चाहता हूँ। सरकार को सरकारी शराब के ठेके बंद कर देने चाहिए , मानता हूँ सरकार को आबकारी विभाग सबसे ज्यादा फायदा होता है पर पैसा लोगों की जान से ज्यादा नहीं है। आपको पैसा चाहिए तो लोगों को स्वस्थ बनाओ देश को पैसा स्वतः ही मिलने लग जाएगा। एक तरफ लोग शराब, बीड़ी, गुटखा, तम्बाकू आदि बेचते है तथा दूसरी ओर वे कुछ धन अस्पतालों को दान कर अपने आपको महान घोषित करने में तुले है। मैं देखता हूँ कि साक्षर लोग भी इन लतों में बुरी तरह फँसे है। अगर लत ही लगानी है तो कसम लो ना खुद किसी प्रकार का नशा करेंगे और ना परिवार के किसी सदस्य को करने देंगे । मैं स्वयं भी कसम लेता हूँ कि कभी किसी प्रकार का नशा नहीं करूँगा और स्वयं को स्वस्थ रखते हुए भारत को स्वस्थ बनाऊँगा ।

    जय हिन्द ।

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