वैचारिकी-अदीबों अदब खतरें में हैं

रासबिहारी गौड
मन व्यथित है। मानवता के मानक दरक रहे हैं। आस्थाओं गुम्बद ढह से रहे हैं। दीयों से रोशनी बिखर- बिखर जा रही हैं। प्रेम के स्वर भूतिया खंडर में डरावनी आवाजों से गूंज रहे हैं। डर महामारी का नहीं है, महामारी में मानवता के विकृत चेहरे से लग रहा है। अपने आस पास झाँकते हुए अपने साये से डरना नियति बन चुकी ही।
जी,हाँ..! कोरोना की भयावता के बीच धर्मांधता का तांडव यूँ ही लग रहा है। मानों मौत की बलि वेदी पर लटके हुए कंकाल कयामत का जश्न मना रहे हो। मरकज़, इंदौर या देश के अन्य हिस्सों में ऐसे सैकड़ो कंकाल नजर आ रहे हैं। जिन्हें ये खबर ही नहीं है कि उनका यूँ झूलना उनके अपने मजहब और मानवता के लिए कितना बड़ा अपशगुन है। .नहीं..!नही..! उन्हें माफ नहीं किया जा सकता..। वे प्यार की इतनी बड़ी कीमत नही वसूल सकते। उनकी जाहिलाना हरकत का खामियाजा देश या दुनिया भुगतने को तैयार नहीं है। उनके पक्ष में खड़े सारे धार्मिक, नैतिक , शासकीय और सामाजिक पक्ष इस वक्त अपराध की श्रेणी में हैं। उनका अशिक्षित या नासमझ होना कोई बचाव नहीं हो सकता। वे नहीं जानते कि उनके दरवाजों के बाहर ढेर सारा बारूद बिछा है। एक छोटी सी चिंगारी इतने धमाके करगी कि फिर कईं -कईं नस्ले गूंगी और बहरी पैदा होंगी।
यह समय सत्ता और समाज से ज्यादा अदबी आवाजों से सवाल का समय है। इस वक्त फ़िल्म और इल्म के लोगो की खामोशी अखर रही है। उन्हें इन मरकजो के सामने मोहब्बतों का नया मरकज (केंद्र) खड़ा करना चाहिए। मजहब के मसीहाओं को इंसानियत नया सबक सिखाना चाहिए। राजनीति, सिनेमा, साहित्य से लेकर वकील , डॉक्टर, इंजीनियर तक अपने नाम को बदनाम होने से बचाना चाहिए। शाहरुख, सलमान, आमिर, जावेद, नसीरुद्दीन, राहत, वसीम , आरिफ, रहमान, आप सबको व्यक्तिशः जानता हूँ..। इस वक्त आपका चुप रह जाना, पूरी कौम को गुनहगार बना देगा। मत भूलो कि समाज बदल रहा है और इतिहास हम सबका पीछा कर रहा है। आपके बोलने से अनेक आवाजें अपने आप खामोश हो जाएगी, वरना खाली हाथों में हवा भी ज्यादा देर नहीं टिक पाती।
यकीनन पहली बार अदब को मजहब के चश्मे से देख रहा हूँ..। कारण साफ है कि धर्म के आंख, नाक, कान , कुछ नहीं होते। वह ना कुछ देखेगा, ना सुनेगा। लेकिन आपको जमाना सुनता है।आपको सुनकर वह इत्मीनान कर लेगा की इस्लाम मे इंसानियत के पैरोकार जिंदा है। इधर मैं एक अदना सा कलमकार अपने घर की कट्टरता से लड़ते हुए अक्सर घायल होता हूँ, पर थकता नहीं हूँ। मेरी राह में कईं साधु, साध्वी, महाराज, अपने अपने सुरों में नफरत का गीत गाते मिलते है । पर मैं अदब के ढाई आखर बांचता रहता हूँ। क्योंकि खुद को कबीर का वंशज मानते हुए, ” पत्थर पूजे हरि मिले…।” गाकर अपना धर्म निभाता हूँ..। आप भी उसी कबीर की विरासत के साथ जी रहे हैं, तो आज क्यों नहीं कह रहे, “कंकर पत्थर जोड़ के मस्जिद ली चिनाय…।.” पत्थरो की बारिश पर खामोश रहना उनकी वकालत भी हो सकती है। माना आप इन कारनामों की सीधी पैरवी नहीं कर रही, पर इनके विरोध की तीखी आवाजें भी कानों में नहीं पड़ रही। खुसरो, रहीम रहमान , की धरती आपसे कह रही है कि अपने पूर्वजों को बंटने मत दो..। हम एक बार यह दर्द सह चुके हैं। इतिहास अपने आप को प्रमाणित करने के बहुत कम मौके देता है।.. मत कहना कि किसी को किसी से प्रमाण लेने की क्या जरूरत है। हम सब अपनी-अपनी नजरों से प्रमाणित होते रहते हैं और अगर हम वहाँ सीधे खड़े है तो वक्त हमारे साथ रहता है। सम्भवतः आप मजहब को नहीं मानते हो, किन्तु आप जिन्हें मानते हो उनके लिए थोड़ी देर मजहबी बनकर मौत के मरकजो पर धावा बोल दो, ताकि हम सब एक बार सबको बचा ले जाएं।
कोरोना तो कुछेक जाने लेकर चला जायेगा..। लेकिन..।मेरे अदीब दोस्तों! अभी अगर आप चुप रहे तो उससे बड़ा वायरस इस देश मे हमेशा के लिए रह जाएगा। यह बताने की जरूरत नहीं है कि ऐसे वायरसों के लिए हमारी जमीन कितनी मुफीद है।
उम्मीद है मेरी विनती के बाद कुछ आवाजें इस सन्नाटे को तोड़ती हुई हमें टूटने से बचा लेंगी। अदब सिर्फ कुछ लब्जों में कैद नहीं होता। वह हमारी विरासत, इबादत और मोहब्बत में रहता है। अदीबों कुछ बोलो..हमारा अदब खतरे में हैं।

रास बिहारी गौड़

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