हथेली पर राख का दाग !

शिव शर्मा
दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के पास निजामुद्दीन औलिया ने एक संदेश भेजा। अपने खास मुरीद अमीर खुसरों के जरिए संदेश भेजा। खुसरो को दिल्ली सल्तनत से ‘अमीर’ का खिताब मिला हुआ था। वह सीधा ही सुल्तान से मिल सकता था।
सन्देश था – एक मुट्ठी राख के लिए खून खराबा मत करो। सुल्तान बोला – हम रानी पद्मावती को फतह करने के लिए जा रहे हैं, राख के लिए नहीं। पुनः खुसरो ने समझाया कि राजपूत अपनी आन बान के लिए कुर्बान हो जाते हैं। आप जीतें या हारें, मिलेगा कुछ नहीं, औलिया ने यही कहा है। हमारी भी गुजारिश है कि बेवजह खून खराबा करने से खुद की ही तवारीख पर दाग लग जाता है।
किंतु सुल्तान की होनी ने उसे चित्तौड़ भेज दिया। रानी पद्मावती ने जौहर किया। सुल्तान जब वहां पहुंचा तब राख ही राख थी। उस का दिल भीग गया। कलेजे में जैसे शूज चुभा! उसकी जीत में खून की दुर्गंध थी! उसकी हाथ में हथेली पर राख थी! उसे औलिया का सन्देश याद आया। उसने मुट्ठी भर राख उठाई और बोला – रानी साहिबा ! आपकी खुद्दारी को सलाम। फिर राख वहीं छोड़ दी। उसने जब अपनी हथेली को देखा तो चैंक गया, घबरा गया। उस की हथेली के बीचों बीच राख का काला निशान रह गया – दिल्ली सल्तनत की तवारीख (इतिहास) पर दाग जैसा, सुल्तान की बादशाहत पर दाग जैसा और उस के आंतरिक सुकून पर गरम राख जैसा।
दिल्ली लौट कर अलाउद्दीन ने औलिया के पास पछतावा भेजा – आप की नसीहत पर गौर नहीं करने से हम ने तवारीख को दागदार किया हैं हमें इस बात का अफसोस है और ता-जिन्दगी रहेगा।

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