ज़मीन का मालिकाना हक़ माँगने के लिए देश के विभिन्न हिस्सों से पदयात्रा करते हुए दिल्ली की ओर रवाना भूमिहीनों से केंद्र सरकार ने समझौता कर लिया है.
लेकिन इस समझौते में आश्वासन ज़्यादा ठोस उपाय कम हैं.
सरकार ने ज़्यादातर माँगों के बारे में कह दिया है कि वो इस पर राज्य सरकारों से जल्दी ही बातचीत का सिलसिला शुरू करेगी और उन्हें भूमि संबंधी क़ानूनों को लागू करने के लिए तैयार करेगी.
इस समझौते की घोषणा केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने आगरा के पास छावनी क्षेत्र में पड़ाव डाले हुए हज़ारों भूमिहीनों के बीच जाकर की है. इस मौके पर उनके साथ फर्रुखाबाद के सांसद राज बब्बर भी मौजूद थे.
ये तय किया गया है कि जयराम रमेश के नेतृत्व में एक टास्क फोर्स का गठन किया जाएगा जो समझौते को लागू करने का काम करेगी.
राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनसीए) के सदस्य और भू-संबंधी मामलों के विशेषज्ञ एनसी सक्सेना कहते हैं कि इस समझौते में ‘काफी भुलावा है’.
ज्यादातर मामलों में फैसला करने के लिए राज्य सरकारों से बात करने की बात कही गई है. पर सक्सेना कहते हैं कि बहुत सारे मसले केंद्र सरकार के अधीन है पर उसके बारे में कोई बात नहीं कही गई है.
आश्वासन ही आश्वासन
पिछले कुछ वर्षों से जमीन अधिग्रहण के खिलाफ देश के कई हिस्सों में काफी उग्र आंदोलन चल रहे हैं. उड़ीसा, झारखंड और छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाक़ों में सुरक्षा बल माओवादियों के साथ गंभीर संघर्ष में उलझे हुए हैं.
दिल्ली के पास भट्टा पारसौल गाँवों में किसानों और पुलिस के संघर्ष के बाद ज़मीन का मुद्दा अंतरराष्ट्रीय सुर्ख़ियों में छा गया था.
एकता परिषद नाम के गैर-सरकारी संगठन की ओर से भूमिहीनों को एकजुट करके दिल्ली लाने वाले पीवी राजगोपाल ने कुछ दिन पहले ही इस बात की उम्मीद जताई थी कि सरकार से उनका समझौता हो जाएगा.
उन्होंने कहा था कि अगर समझौता हो गया तो फिर भूमिहीन रास्ते से ही अपने घरों को लौट जाएँगे.
कुछ साल पहले भी एकता परिषद के नेतृत्व में भूमिहीनों ने दिल्ली कूच किया था. उस समय उन्हें आश्वासन दिया गया था कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व में एक टास्क फोर्स बनाई जाएगी जो भूमिहीनों के मुद्दों को हल करेगी.
पर अब तक इस टास्क फोर्स की एक भी बैठक नहीं हो पाई.
जानकार कहते हैं कि सबसे पहले भूमि सुधार कानून के मसौदे को दुरस्त किया जाना चाहिए जिसे ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने बनाया है. आदिवासियों की जमीन खनिद संपदा दोहन के लिए ले ली जाती है और उन्हें कोई फायदा नहीं होता.
हिंसा का दुष्चक्र
सक्सेना का मानना है कि या तो आदिवासी खुद पर हो रहे अत्याचारों को चुपचाप सहन करते हैं या फिर बंदूक उठा लेते हैं. बीच का रास्ता अपनाते हुए संगठित विरोध नहीं करते.
वो कहते हैं, “जनतांत्रिक और शांतिपूर्ण तरीके से विरोध करने पर भी अगर सरकार उन्हें कुछ नहीं देती तो आदिवासी फिर बंदूक उठाएँगे.”
उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने 2005 में सुझाया था कि जमीन का विरासती अधिकार महिलाओं को भी मिलना चाहिए लेकिन सरकार ने आज तक ये पता नहीं किया है कि कितनी महिलाओं को विरासत में ज़मीन दी गई है.
सक्सेना कहते हैं कि सबसे पहले भारत सरकार को भूमि अधिग्रहण कानून को दुरस्त करना चाहिए. राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य की हैसियत से उन्होंने कहा कि इस परिषद ने उसमें (किसानों और भूमिहीनों के पक्ष में) जो भी प्रावधान सुझाए थे कोयला और खनिज मंत्रालयों ने दबाव डाल डाल कर उन्हें निकलवा दिया.