अजमेर के पत्रकारों-साहित्यकारों की लेखन विधाएं

भाग तीन

मित्रों,

तेजवानी गिरधर
अजमेर के पत्रकारों-साहित्यकारों की लेखन विधाओं के विषय पर जब लिखने का मन हुआ तो मुझे अंदाजा नहीं था कि यह गले पड़ जाएगा। कहते हैं न कि गए थे नमाज पढऩे और रोजे गले पड़ गए। वैसी ही हालत हुई है मेरी। असल में जिन पत्रकारों व साहित्यकारों को गहरे से जानता था, मेरा मन उनकी लेखन विधा का दर्शन करने व कराने का ही था, ताकि नए पत्रकारों व नवोदित लेखकों को साहित्य व पत्रकार जगत के बारे में एक दृष्टि दे सकूं। मगर बाद में लगा कि जिनके बारे में बहुत अधिक जानकारी नहीं है, यदि उनका जिक्र तक नहीं किया तो यह वाजिब नहीं होगा। अत: मेरी कोशिश है कि शहर के सभी सुपरिचित पत्रकारों व साहित्यकारों को इस शृंखला में शामिल करूं। यदि किसी के बारे में बहुत अधिक जानकारी न दे पाऊं तो मुझे माफ कर दीजिएगा। एक बात और। सूची अधिक लंबी होने के कारण वरीयता की मर्यादा का पालन करने में कठिनाई होगी। मेहरबानी करके अन्यथा न लीजिएगा। एक निवेदन और। यदि किसी मित्र का इस यात्रा में सहभागी होने का मन करता हो तो, स्वागत है।

लीजिए, शृंखला की अगली कड़ी:-

डॉ. बद्री प्रसाद पंचोली
यदि भाषा के संपूर्ण ज्ञान के हिसाब से देखा जाए तो डॉ. बद्री प्रसाद पंचोली का नाम शीर्ष पर है। यानि अल्टीमेट। झालावाड़ के खानपुर में 1 जून, 1935 को जन्मे डॉ. बद्रीप्रसाद पंचोली राजस्थान के प्रतिष्ठित साहित्यकार और हिंदी व संस्कृत के जाने-माने विद्वान हैं। उन्होंने हिंदी व संस्कृत में एम.ए. व पीएचडी की है। आप राजकीय महाविद्यालय में हिंदी विभागाध्यक्ष रहे। उन्होंने अनेक पुस्तकें लिखी हैं।
वस्तुत: वे हिंदी व संस्कृत भाषा और व्याकरण के इतने प्रकांड विद्वान हैं कि उन्हें शब्दों की व्युत्पत्ति तक का पूर्ण ज्ञान है। मेरी जानकारी के अनुसार वेद संस्थान के स्वर्गीय श्री अभयदेव शर्मा भी उनके समकक्ष माने जाते थे। श्री पंचोली को मैने ऐसे जाना कि मैं जब दैनिक न्याय में था, तब आपका संपादकीय नियमित रूप से प्रकाशन हेतु आता था। लेखन के क्षेत्र में उन्होंने लंबी यात्रा तय की है। उन्होंने तकरीबन चालीस साल तक न्याय में नियमित रूप से संपादकीय लिखा। दुनिया का शायद ही ऐसा कोई विषय हो, जिस पर आपकी कलम न चली हो। हम जानते हैं कि संपादकीय आम तौर पर घटनाओं की संतुलित समीक्षा के साथ समाज को दिशा देने का काम करते हैं। इस लिहाज से उन्होंने लंबे समय तक एक उपदेशक के रूप में भी समाज को अपनी सेवाएं दी हैं। उनकी शैली में घुमाव भले ही कुछ खास न हो, मगर इतना सधा हुआ इतना लिखा करते थे कि वह धारा प्रवाह तो होता ही था, उसमें व्यवस्था पर प्रहार करती धार भी पर्याप्त होती थी। आम तौर पर नैतिकता पर जोर हुआ करता था। जिस भी विषय पर संपादकीय लिखा, उस पर संक्षेप में संपूर्ण जानकारी मिल जाती थी। न तो उसमें कोई अवांछनीय शब्द होता था और न ही उसमें कुछ जोड़ा जा सकता था। लेखनी पर कितना नियंत्रण था, इसे जानकर आप हैरान रह जाएंगे। यूं समझिये कि ए फोर साइज के कागज से कुछ छोटे कागज पर ऊपर कोने से लिखना शुरू करते और ठीक नीचे के कोने तक संपादकीय पूरा हो जाता। कांट-छांट कहीं भी नहीं। कागज की बचत के लिए हाशिया तक नहीं छोड़ते। है न समझ से परे कि क्या किसी की अपनी लेखनी पर इतनी कमांड हो सकती है कि उसे शब्दों की गिनती तक का पता हो कि कितने में अपनी बात पूरी करनी है। यह जानकर आपका मन उनको नमन करने को करता है कि नहीं।

स्व. श्री मनोहर वर्मा
अजमेर में पहली पंक्ति के साहित्यकारों में स्वर्गीय श्री मनोहर वर्मा का नाम श्रद्धा के साथ लिया जाता है। वे प्रदेश के प्रतिष्ठित बाल साहित्यकार थे। आजीविका के लिए 1953 से रेलवे में नौकरी की, लेकिन तभी से लेखन की निजी रुचि को भी पोषित करते रहे। उन्होंने बाल साहित्य पर अनेकानेक पुस्तकें लिखी हैं। उन्हें 1973 में राजस्थान साहित्य अकादमी की ओर से विशिष्ट साहित्यकार के रूप में सम्मानित किया गया। सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने राजस्थान पत्रिका, दैनिक भास्कर व दैनिक नवज्योति में समीक्षक के रूप में सेवाएं दीं। स्वाभाविक है खबर की भाषा-शैली की गहरी जानकारी थी और बहुत बारीकी से नक्काशी किया करते थे। जीवन के आखिरी क्षणों तक पत्रकारिता व साहित्य की सेवा की। उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि।

-तेजवानी गिरधर
7742067000

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